Satyanarayan Katha Chapter First |
प्रथमोध्याय: एक बार नैमिषारण्य नामक पुण्य स्थल में शौनक आदि ऋषियों ने महान् पौराणिक सूत जी से अपनी जिज्ञासा प्रकट की। शौनक जी ने पूछा- ऐसा कौन सा व्रत अथवा तप है, जिसे करने से सभी लोग वांछित फल पा सकते हैं, यह विषय हमें कृपया भली प्रकार समझाइये।
सूतजी बोले- एक बार देवर्षि नारद ने भी भगवान विष्णु से ऐसा ही प्रश्न किया था। उस प्रसंग को मैं कहता हूँ; आप लोग ध्यानपूर्वक सुनें।
एक बार नारदजी लोक कल्याण की भावना से विविध लोकों में विचरण करते हुए मृत्यु लोक (पृथ्वी) में पहुँचे। वहाँ उन्होंने अधिकांश मनुष्यों को अपने ही असत्कर्मों के प्रभाव से नाना प्रकार के कष्ट पाते देखा।
उदाहरण
१- राजा दशरथ राम के वियोग में जल विहीन मछली की तरह छटपटा रहे थे। देवी कौशल्या उन्हें समझाकर धैर्य दिलाने का प्रयास कर रही थीं। मन्त्री सुमन्त्र के मन में प्रश्न उठा कि पुत्र वियोग तो रानी को भी है, पर दुःख राजा को अधिक क्यों भोगना पड़ रहा है। प्रश्न का समाधान तब हुआ,जब होश आने पर दशरथ स्वयं कौशल्या जी को अपने द्वारा श्रवण कुमार के वध की कथा सुनाने लगे। सुमन्त्र समझ गये कि राजा के अपने कर्म ही उन्हें दुःख दे रहे हैं।
२- ज्ञानी योद्धा बर्बरीक के सिर को दिव्य दृष्टि प्रदान करके भगवान कृष्ण ने उसे एक वृक्ष की चोटी पर महाभारत का युद्ध देखने के लिये रख दिया था। युद्ध के बाद पाण्डव योद्धा अपनी-अपनी शेखी दिखाते हुए युद्ध-विजय में अपनी भूमिका का बखान करने लगे। भगवान कृष्ण ने प्रत्यक्षदर्शी बर्बरीक से निर्णय लेने की सलाह दी। बर्बरीक उनकी बातें सुनकर हँसे और कहने लगे कि तुम सब कृष्ण के साथ रहकर भी अज्ञानी ही रहे। अरे, यह तो सब अपने दुष्कर्मों के प्रभाव से चलती-फिरती लाशों की तरह ही थे। इनके दुष्कृत्यों ने इन्हें खोखला कर दिया था। ईश्वरीय नियमानुसार यह स्वत: ही नष्ट हुए हैं।
३- कृष्ण बहेलिये का तीर खाकर पीड़ा से छटपटा उठे । बहेलिया क्षमा माँगने तथा दुःख प्रकट करने लगा। कृष्ण ने उत्तर दिया - तुम दुःख मत करो, बालि को इसी प्रकार मारने के कारण मुझे कर्म व्यवस्थानुसार यह कष्ट सहना आवश्यक था।
४- कंस वध के बाद देवर्षि नारद मथुरा पहुँचे । राजा उग्रसेन ने उनसे पूछा - देवर्षि ! कंस का वध तो अब हुआ, किन्तु वर्षों तक वह मर्मातक पीड़ा पाता रहा । उसे नींद नहीं आती थी और विक्षिप्त की तरह चीख-चीख पड़ता था। क्या यह मृत्यु के भय से था अथवा अन्य कोई कारण था। नारदजी बोले, "राजन् वह उसके स्वयं के पाप कर्मों की प्रतिक्रिया थी। उसके कुकर्म ही उसे पीड़ा पहुँचाते रहे, अन्यथा मृत्यु तो हर मनुष्य की स्वाभाविक ढंग से आ जाती है, उसके पूर्व वर्षों तक भयानक कष्ट उठाने की आवश्यकता नहीं पड़ती।
५- राजा नहुष को ऋषि शाप के कारण इन्द्र पद से च्युत होकर अजगर योनि में जाना पड़ा। उसकी दुर्दशा देखकर वायु देव ने देवगुरु बृहस्पति से पूछा कि उसे इस स्थिति में पहुँचाने के लिए क्या किसी ने कपट-चाल चलकर उसे शाप दिलवा दिया? गुरु बृहस्पति ने उत्तर दिया- नहीं, परन्तु उसे शाप दिलाने तथा इस प्रकार दीन-हीन स्थिति में ठेल देने के लिये उसके अपने ही पाप कर्म उत्तरदायी हैं। अपने ही श्रेष्ठ कर्मों से वह इन्द्र पद का अधिकारी बना था और पाप कर्मों में प्रवृत्त होकर स्वयं ही अपने पतन का कारण बन गया।
लोगों को पीड़ित देखकर देवर्षि दुःखी हुए और समस्या का समाधान खोजने लगे:प्राणियों के कष्ट और दुःख कैसे मिटें, यह सोचते हुए वे विष्णुलोक जा पहुँचे।
वहाँ उन्होंने भगवान से प्राणियों के कष्ट निवारण का उपाय पूछा:भगवान ने उन्हें बतलाया कि जब मनुष्य अपने लिए निर्धारित सत्य पथ से विचलित हो जाते हैं, तभी ऐसी स्थिति पैदा हो जाती है । इस स्थिति से उबरने के लिए व्रतपूर्वक निर्धारित अनुशासनों के पालन का अभ्यास करना चाहिए।
भगवान विष्णु बोले- हे नारद ! "सत्यनारायण व्रत" एक ऐसा व्रत है, जिसे विधि-विधानपूर्वक करने से इस जीवन में सुख की प्राप्ति होती है और मरने पर सद्गति अथवा यश मिलता है।
भगवान ने कहा- सत्य ही भगवान का सच्चा स्वरूप है। ऐसा समझकर जो मनुष्य सत्यव्रत को अपनाता है, वह प्रभु की कृपा का लाभ अवश्य पाता है। भगवान व्यक्ति रूप नहीं, भाव रूप हैं।
कथा प्रसंग
१- राजा हरिश्चन्द्र परीक्षा में सफल हुए तथा भगवान ने प्रकट होकर उन्हें अपने श्रेष्ठ भक्त की मान्यता दी। प्रश्न उठा कि यह तो वर्षों तक अनवरत श्रम में लगे रहे, पूजा-उपासना का इन्हें समय ही नहीं मिला, फिर इन्हें श्रेष्ठ भक्त का सम्मान क्यों कर मिल गया? देवगुरु बृहस्पति ने समझाया-"वत्स! हरिश्चन्द्र सतत उपासना में लगे रहे हैं, उन्होंने सत्य रूप में प्रभु की उपासना की है। उनके मन से सत्य की मर्यादा, प्रतिष्ठा का विचार क्षण भर को भी नहीं हटा। भगवान की यह श्रेष्ठ उपासना है, इसीलिए उन्हें यह सम्मान मिला।
२- राजा दशरथ राम का विछोह सह नहीं सकते थे। लोगों ने सलाह दी कि आपको अपना निर्णय बदलने का हक है- कैकेयी की बात मत मानिये। राजा ने कहा कि मुझे राम का पिता बनने का सौभाग्य जिस सत्याचरण के प्रभाव से मिला है, उसे त्याग कर मैं अपने स्तर से गिरना नहीं चाहता। मुझे वचन सोच-समझकर देना चाहिए था, पर अब सत्य की मर्यादा भंग करके जीवन का मोह करना मुझे स्वीकार नहीं और सत्यनिष्ठ राजा इसलिए जीवन मुक्त की गति पा सके।
४- भीष्म शर-शैय्या पर लेटे थे। मामा शकुनि उनके पास गये और बोले"आपने शत्रु पक्ष को अपनी दुर्बलता बताकर स्वयं भी कष्ट पाया तथा हमारी भी हानि की, ऐसा करना आपके लिए उचित न था। भीष्म ने कहा - "शकुनि तुम भूलते हो कि कौरवों के अन्न से शरीर पालने के कारण केवल शरीर से में तुम्हारे पक्ष में था। मेरा अन्त:करण प्रभु के अनुदानों से पलता है, अत: मन से मैं उसी पक्ष में हूँ, जिस पक्ष में भगवान कृष्ण हैं । शकुनि ने प्रश्न किया -"क्या आप भी उस छलिया कृष्ण को ईश्वर मानते हैं? भीष्म बोले- कृष्ण को ईश्वर मानूँ न मानूं, पर सत्य पाण्डवों के पक्ष में हैं। मैंने जीवन भर सत्य को ही ईश्वर मानकर उसकी आराधना की है। इसलिए अपनी प्रतिज्ञायें जीवन भर निभा सका। वहीं मेरा सच्चा इष्ट है।
हे नारद ! संसार में लोग सत्य धर्म की उपेक्षा करने के कारण ही अत्यधिक कष्ट पा रहे हैं। यदि संसारी मनुष्य शब्दों से ही नहीं, आचरण से भी सत्य धर्म के पालन के लिए तत्पर हो जायें, तो निश्चित रूप से दुःखों से छुटकारा पा सकते हैं।
धर्म के चार चरण-
धर्मरूपी वृषभ के चार चरण कहे गये हैं-
(१) विवेक
(२) संयम
(३) सेवा
(४) साहस
सत्य धर्मपालक के जीवन में यह सभी गुण रहते हैं।
उदाहरण
१.विवेक- धर्म विवेक - सम्मत ही होता है। विवेकपूर्ण निर्णय लेने वालों को धर्म पालन में अग्रणी माना गया है । स्थूल दृष्टि से भले ही उनके आचरण विपरीत दिखते हों; जैसे-
पिता तज्यो प्रह्लाद विभीषण बन्धु, भरत महतारी।
बलि गुरु तज्यो कंत ब्रज बनितन, भे मुद मंगलकारी ।।
पिता, बड़े भाई, माता, गुरु एवं पति की आज्ञा मानना धर्मसंगत कहा जाता है; किन्तु प्रह्लाद का पिता हिरण्यकश्यप, विभीषण का भाई रावण, भरत की माँ कैकेयी, बलि के गुरु शुक्राचार्य तथा गोपियों के पति उन्हें श्रेष्ठ-मार्ग पर ईश्वरीय-मार्ग पर बढ़ने से रोकते थे। अत: उन्होंने परम्परा की जगह विवेक को महत्त्व दिया तथा उनकी अवज्ञा कर दी। विवेक- सम्मत होने से उन्हें धर्म परायण ही माना गया ।
२. संयम- धर्म का एक चरण संयम भी है। संयमशील ही धर्माचरण में स्थिर रह पाता है, अन्यथा असंयम उसे पतित कर देता है। संयम की महत्ता के अनेक उदाहरण हैं; जैसे-
१- लक्ष्मण ने संयम द्वारा ही वह शक्ति प्राप्त की थी, जिसके द्वारा मेघनाद को मारकर धर्मस्थापना में योगदान दे सके।
२- अर्जुन भी इन्द्रियजयी कहे जाते थे, इसीलिये अपराजेय रहे । स्वर्ग में अप्सरा उर्वशी ने उन्हें विचलित करने का प्रयास किया, किन्तु वे दृढ़ रहे । उसे भी उन्होंने माँ रूप में ही स्वीकार किया।
३- शिवाजी पर भवानी की कृपा थी । वह भी इसीलिये कि वे नारी मात्र के प्रति मातृ भावना रखते थे। शत्रु पक्ष की सुन्दरी गौहरबानू को भी उन्होंने माँ कहकर ही सम्बोधित किया।
४- सती गांधारी की आँखों में दिव्य शक्ति होने का उल्लेख मिलता है। दुर्योधन के जितने शरीर पर उनकी दृष्टि पड़ी, वह वज्र जैसा हो गया था। यह शक्ति संयम से ही आयी थी। पति के अंधे होने के कारण उन्होंने स्वयं भी नेत्रों का उपयोग करना छोड़ दिया था। सांसारिक आकर्षण में शक्ति का अपव्यय बचा और उनमें अद्भुत क्षमता जाग गई। सभी ऋषि मुनि संयम द्वारा अपनी आवश्यकताओं को कम से कम करके तथा आंतरिक शक्तियों को विकसित करके स्वयं गौरव पाते थे और समाज का हित साधन करने में समर्थ होते थे।
३. सेवा- धर्माचरण में सेवा आवश्यक है। सेवा का महत्त्व समझने वालों ने यश और जीवनोद्देश्य की प्राप्ति सफलतापूर्वक की है
१- भगवान राम ने हनुमान जी को सेवा का महत्त्व बताते हुए कहा-
सोई अनन्य जाके अस मति न टरई हनुमंत ।
मैं सेवक सचराचर रूप स्वामि भगवंत ॥
हनुमान जी ने उसे अपना गुरु मंत्र बना लिया और पूरी तत्परता से सेवा कार्य में अपनी सारी शक्ति-सामर्थ्य लगा दी। फलस्वरूप वे भगवान के साथ-साथ पूजा के अधिकारी बन गये।
२- भगवान कृष्ण सेवा का महत्त्व समझते थे और उसकी प्रतिष्ठा चाहते थे । इसलिये उन्होंने पाण्डवों के राजसूय यज्ञ में अतिथियों के पैर धुलाने और जूठी पत्तलें उठाने का कार्य अपने जिम्मे लिया था।
३- शबरी भीलनी थी। उसे लोग अन्य प्रकार का भजन-पूजन न करने देते थे। उसने मातंग ऋषि के आश्रम में रहने वाले तपस्वियों और ब्रह्मचारियों आदि की सेवा का कार्य मूक निष्ठा के साथ प्रारम्भ कर दिया । उनके मार्ग को साफ करना, सरोवर को गन्दा न होने देना आदि कार्य तत्परता से करती रही। बदले में कुछ आकांक्षा भी नहीं की । फलस्वरूप भगवान राम स्वयं उसके यहाँ पहुंचे और उसे उच्चतम सम्मान दिया।
४. साहस- धर्माचरण के लिये सत् साहस अनिवार्य है, अन्यथा व्यक्ति समर्थ होकर भी श्रेष्ठ मार्ग पर कदम नहीं बढ़ा पाता । साहस के उदाहरण निम्न प्रसंगों में स्पष्ट होते हैं-
१- जटायु ने देखा कि राक्षसराज रावण सीता को उनकी इच्छा के विरुद्ध ले जा रहा है। प्रतिरोध न होने से गलत कार्य करने वाले का हौसला बढ़ता है। उसने राक्षसराज को चुनौती देते हुए भरपूर प्रतिरोध किया और धर्माचरण की दिशा में एक अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत किया।
२-नचिकेता के पिता ने यज्ञ किया और दिखावे के रूप में निरर्थक वस्तुओं का दान करने लगे। नचिकेता को यह बुरा लगा। उसने साहसपूर्वक पिता से सही ढंग से दान करने का आग्रह किया। उन्होंने डर-भय दिखाने के लिये कहा- "तू ही बड़ा उपयोगी है, तुझे ही दान कर दूंगा।" नचिकेता विचलित न हुआ, "पूछा- मुझे किसको दान में देते हैं।" पिता ने झल्लाकर कहा "यम को"। लोगों के हजार मना करने पर भी नचिकेता नहीं माना । स्वयं यमराज के पास चला गया और संजीवनी विद्या का अधिकारी बना । चोट खाकर उसके पिता ने भी दिखावा छोड़कर सही मार्ग अपना लिया।
३- पाण्डव जब अज्ञातवास में थे । चक्रपुर में उन्हें पता लगा कि एक राक्षस के भोजन के लिये नित्य एक व्यक्ति भेजा जाता है । इस अनीति को समाप्त करना उचित था, भीम राक्षस को मारने में समर्थ भी थे। पर अज्ञातवास का भेद खुलने पर पुन: अज्ञातवास की अवधि पूरी करनी पड़ती। पाण्डवों ने धर्म कार्य के लिये साहस दिखाया। पुनः अज्ञातवास का खतरा उठाने को तैयार हो गये। भीम को एक ब्राह्मणी के इकलौते पुत्र के स्थान पर राक्षस का आहार बनने भेज दिया और भीम ने उसे द्वन्द युद्ध में मार गिराया।
४- इन्द्र ने वज्र बनाने के लिये ऋषि दधीचि से उनकी हड्डीयों की माँग कर दी। ऋषि ने उसे साहस के साथ स्वीकार किया तथा लोक हित में शरीर छोड़ने में जरा भी नहीं हिचके।
सत्यधर्मपरायण व्यक्ति अपने परिवार और समाज को एक उपवन मानकर कर्तव्यनिष्ठ माली की तरह उसका शोधन, पोषण और संवर्धन करता है।
उदाहरण
१- एक राजा ने दो माली रखे और उन्हें एक-एक बगीचा सौंप दिया। मंत्रियों ने उन्हें समझाया कि राजा को प्रसन्न रखना उनका परम कर्तव्य है। एक माली ने बगीचे में राजा का चित्र स्थापित करके अधिकांश समय उसकी पूजा, वंदना, आरती में लगाना प्रारम्भ कर दिया। दूसरे ने राजा की रुचि का ध्यान रखकर उसी के अनुसार सुन्दर फल-फूल उगाने प्रारम्भ कर दिये । राजा निरीक्षण के लिये पहुंचे, तो पहले माली से उन्हें बहुत निराशा हुई और दूसरे को उन्होंने पारितोषिक देकर सम्मानित किया।
२- शिष्य त्रिविक्रम और चित्रांगद गुरु के पास पहुँचे तथा अपने-अपने उपवनों की प्रगति की सूचना दी। गुरु देव ने उनका निरीक्षण किया, तो पाया चित्रांगद के बगीचे के वृक्ष कमजोर थे और अस्त-व्यस्त एवं कुरूप भी। त्रिविक्रम के बाग में वृक्ष पुष्ट तथा सुडौल थे। चित्रांगद कहने लगे गुरु देव मैंने पौधों को खाद-पानी त्रिविक्रम से कम नहीं दिया । उनको जरा भी कष्ट नहीं होने दिया, फिर भी ये पुष्ट नही लगते हैं, दैव का प्रकोप है। गुरु हँसे-बोले -बेटा मात्र खाद-पानी ही सब कुछ नहीं, तुमने उनकी कटाई-छंटाई नहीं की, इसलिये यह बेडौल हैं। इनके आस-पास अनेक झाड़-झंखाड़ उग आये हैं। यह उनके हिस्से का आहार खींच लेते हैं। वत्स ! निराई और छंटाई भी सीखो।
इन पाँच दोषों से बचना चाहिए
सत्यनिष्ठ लोगों का हृदय लोभ, ममत्व (मोह), मात्सर्य (ईर्ष्या-डाह), मद (अहंकार) और काम(इच्छा) आदि दोषों से मुक्त होता है तथा वे दूसरों के दोषभी नहीं ढूंढाकरते।
उक्त दोषों की हानियाँ समझने के लिए निचे उदाहारण के साथ दिया गया है-
१. लोभ- किसी वस्तु, पद अथवा यश के आकर्षण में व्यक्ति विवेक खो बैठता है। सत्यसाधक विवेक से यथार्थ को समझ कर लालच में नहीं पड़ता। लोभी सत्य भूल कर दुर्गति वरण कर लेता है।
उदाहरण -
१- मछली काँटे में लगे आटे के लालच में जान गँवाती है। पक्षी दाने के लोभ में शिकारी का जाल नहीं देख पाते और फैसते हैं। मनुष्य स्वादिष्ट भोजन के लोभ में पेट खराब करके रोगी बन जाते हैं। पैसे के लालच में पड़ कर लोग मनुष्यता भूल जाते हैं, भाईचारा तोड़कर कुकृत्य करते देखे जाते हैं।
२- दुर्योधन द्वारा सेनापति बनाये जाने की लालच में अश्वत्थामा ने नियम विरुद्ध रात में सोते हुए पाण्डव पुत्रों की नृशंस हत्या कर दी और जीवन भर के लिये कलंक तथा अपयश कमाया, मिला कुछ भी नहीं।
२. मोह- प्रेम अपने आत्मीय भाव के विस्तार के लिये तथा दूसरों को प्रगति पथ पर बढ़ाने के लिये होता है। मोह में पड़ कर व्यक्ति प्रेम का विकृत उपयोग करने लगता है। इस कारण उचित-अनुचित भूलकर अपनी और दूसरों की प्रगति में बाधक बनता है।
(१) राजा दशरथ कैकेयी के मोह में पड़कर बिना सोचे वचन दे बैठे, जो सभी के लिए गंभीर संकट का कारण बना।
(२) पुत्र मोह में पड़कर द्रोणाचार्य ने गुरुकुल चलाने की अपेक्षा राजा की नौकरी कर ली । फलस्वरूप शिष्यों - कौरवों से अपमानित होते रहना पड़ा, धर्मपक्ष छोड़ना पड़ा और पुत्र मोह में ही मारे गये।
३. काम- कामेच्छा के वशीभूत भी मनुष्य सत्यपथ भूल जाता है। क्षणिक सुख के लिए स्थायी सुख-सौभाग्य खो देता है
उदाहरण:
१- सुन्द-उपसुन्द महाबली दैत्य थे। उन्होंने वरदान माँगा था कि वे परस्पर एक दूसरे को मारें तभी मरें, अन्यथा नहीं। उनमें बड़ा प्रेम था। भगवान ने मोहिनी रूप बनाया। दोनों उस पर मोहित हो गये। मोहिनी ने उनसे अलग-अलग बातचीत की। मोहिनी के आसक्ति में वे एक दूसरे से लड़कर नष्ट हो गये।
२- इन्द्र और चन्द्रमा ने मिलकर गौतम ऋषि तथा उनकी पत्नी अहिल्या से छल किया । चन्द्रमा ने मुर्गा बनकर बाँग लगाई, सबेरा हुआ समझ कर ऋषि गंगा स्नान करने चल पड़े। इन्द्र ऋषि का वेष बनाकर अहिल्या का सतीत्व भंग कर दिया । फलस्वरूप दोनों को शाप लगा और वे सदा के लिए कलंकित हो गये।
३- राजा ययाति ने अपनी आयु पूरी होने पर अपने पुत्र की जवानी माँग ली, फिर भी कामेच्छा तृप्त न हुई, फलत: उसे निकृष्ट योनि में जाना पड़ा । नहुष इन्द्र पद पाने के बाद भी इन्द्राणी पर कुदृष्टि डालने के कारण ही सर्प योनि में गये।
४. मात्सर्य (ईर्ष्या-डाह)- यह दूसरे की प्रगति को देखकर स्वयं ऊंचा उठने की प्रेरणा लेने के स्थान पर, उन्हें गिराने-अपमानित करने की प्रवृत्ति है । मनुष्य इसी दोष के कारण यह सत्य भूल जाता है- हमारी विभूतियाँ स्वयं को तथा दूसरों को उठाने के लिए हैं, गिराने के लिए नहीं।
उदाहरण
१- भक्त अंबरीष की ख्याति, निश्छल स्वभाव और सेवा भावना के कारण फैलने लगी । ऋषि दुर्वासा को उनके यश से ईर्ष्या हुई और वे अकारण नीचा दिखाने के लिए शिष्यों सहित पहुँचे और केवल इस बात पर क्रुद्ध हो उठे कि अंबरीष ने उन्हें भोजन कराये बिना चरणामृत और तुलसीदल क्यों पान कर लिया ? उन पर कृत्या शक्ति छोड़ दी। अम्बरीष शान्त बने रहे। भगवान विष्णु ने यह अनीति देखकर सुदर्शन चक्र छोड़ा। कृत्या को समाप्त करके वह दुर्वासा के पीछे लग गया, जब तक उन्होंने अंबरीष से क्षमा नहीं मांग ली, वे तीनों लोकों में भागने पर भी निर्भय न हो सके।
२- पाण्डवों को छल से जुए में हराकर कौरवों ने उन्हें शर्त के अनुसार वनवास के लिए भेज दिया। वे परस्पर सद्भाव के कारण वहाँ भी सुख से रहने लगे। उन्हें चिढ़ाने के लिए कौरव दल-बल सहित वैभव प्रदर्शन करने जंगल में पहुँचे। वहाँ यक्षों के सरोवर में स्नान करने पर झगड़ा हुआ और यक्षों ने कौरवों को बन्दी बना लिया। सूचना पाकर पाण्डवों ने ही उन्हें छुड़ाया। कौरवों को बहुत शर्मिन्दा होना पड़ा।
३- ऋषि वशिष्ठ ने विश्वामित्र को बिना पात्रता पाये, ब्रह्मर्षिकहने से इन्कार कर दिया। विश्वामित्र उनसे द्वेष करने लगे तथा अनेक प्रकार से हानि पहुंचाने का प्रयास किया। छल से उनके १०० पुत्रों को मार डाला। इससे उन्हें बहुत बदनामी उठानी पड़ी। पर जब इसे छोड़कर वे वशिष्ठ जी के सामने नम्र बने, तभी ब्रह्मर्षि पद के योग्य बन सके।
४- एक परिवार में बुड्डा, बुढ़िया तथा एक बच्चा केवल तीन थे। उन पर दया करके शिव-पार्वती ने उनसे एक-एक वरदान माँगने को कहा। बुड्ढा और बुढ़िया का ईर्ष्यालु स्वभाव था । बुदिया ने मांगा "मुझे सुन्दर युवती बना दें।" बुड्ढा ईर्ष्या से जल उठा और मांगा “इसे सुअरिया बना दें।" यह देख बच्चा रो उठा और उसने मांगा- "मेरी मां ज्यों की त्यों हो जाये"। तीनों वरदान पूरे हो गये, पर हाथ कुछ भी न लगा।
५- उक्ति है "उघरे अन्त न होहि निबाहू कालनेमि जिमि रावण राहू" छल करने वालों का भेद कभी न कभी खुल ही जाता है और फिर वे हानि उठाते हैं। कालनेमि संजीवनी बूटी लेने जाते हुए हनुमान को धोखा देने ऋर्षि बनकर बैठा था, पर मारा गया। रावण ने छल से सीता हरण किया, पर उसे अपमान सहते हुए वंश सहित नष्ट होना पड़ा। राहु देवताओं का वेष बनाकर अमृत पान करने उनकी पंक्ति में जा बैठा, पर सूर्य व चन्द्र ने पहचान लिया तथा सिर कटा बैठा।
५. मद (अहंकार)- यह मनुष्य एवं देव सभी को श्रेष्ठ मार्ग से भटका देता है।
१- रावण, कंस, हिरण्यकश्यप, भस्मासुर आदि राक्षसों को अहंकार हो गया था कि उनका कोई कुछ बिगाड़ नहीं सकता, इसीलिए वे खुला अनीति करने लगे थे। यह शाश्वत सिद्धान्त वे भूल गये कि अनीति का अन्त आता ही है। उन्हें भी तिरस्कार, अपमान एवं घृणा का पात्र बनना और नष्ट होना पड़ा।
२- भीम को अपनी शक्ति का अंहकार हो गया। कृष्ण भगवान ने सोचा कि इनका अभिमान दूर न किया गया, तो अनिष्ट होगा। अत: हनुमान जी को समझा कर भेज दिया। वे मार्ग में बुड्ढे का वेष बनाकर पड़ गये। भीम आये, तो उन्हें रास्ता रोकने के लिए अहंकारपूर्वक अभद्र शब्द कहने लगे। हनुमानजी ने विनय की कि मैं चल नहीं सकता, आप ही मुझे एक ओर खिसका दें। भीम ने तिरस्कारपूर्वक प्रयास किया, फिर सारा बल लगा दिया, पर उन्हें हिला भी न सके । उनका अहंकार गल गया, तो हनुमान जी ने अपना रूप दिखाकर उन्हें नम्र बने रहने का उपदेश दिया।
३- नारद जी की तपस्या कामदेव भंग न कर सका । नारद जी को अहंकार हो गया। सबसे अपनी बड़ाई कहते फिरे, किन्तु विश्वमोहिनी पर मोहित होकर स्वयं तमाशा बनना पड़ा, भगवान से भी लड़ पड़े। बाद में बोध हुआ, तो पछताना पड़ा।
नारायण सत्य रूप ही हैं, जो व्यक्ति यह आस्था, निष्ठापूर्वक सुदृढ़ता के साथ जीवन में समाविष्ट कर लेता है, वह निस्संदेह भगवान की परम कृपा का अधिकारी बन जाता है।
नारद जी भगवान से सत्यनारायण व्रत का माहात्म्य और विधि-विधान समझ कर चल पड़े और संसार में सत्यनारायण व्रत कथा का प्रचार करने लगे।
॥सत्यनारायण कथा का पहला अध्याय समाप्त हुआ॥
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बहुत सुंदर प्रस्तुति! साधुवाद आदरणीय श्री जी!!
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