Gajendra Moksha Stotra | गजेन्द्र मोक्ष स्तोत्र हिंदी भावार्थ सहित

श्रीमद्भागवत के अष्टम स्कन्ध में "गजेन्द्र मोक्ष स्तोत्र" Gajendra Moksha Stotra की कथा है।  द्वितीय अध्याय में ग्राह के साथ गजेन्द्र के युद्ध का वर्णन है, तृतीय अध्याय में गजेन्द्रकृत भगवान के स्तवन और गजेन्द्र मोक्ष का प्रसंग है और चतुर्थ अध्याय में गज-ग्राह के पूर्वजन्म का इतिहास है।

 श्रीमद्धागवत में Gajendra Moksha Stotra आख्यान के पाठका माहात्म्य बतलाते हुए इसको स्वर्ग तथा यश दायक, कलियुग के समस्त पापों का नाशक, दुःस्वप्न नाशक ओर श्रेय:साथक कहा गया है.। तृतीय अध्याय का स्तवन बहुत ही उपादेय है। इसकी भाषा और भाव सिद्धान्त के प्रतिपादक और बहुत ही मनोहर हैं। भाव के साथ स्तुति करते-करते मनुष्य तन्मय हो जाता है। 



Gajendra Moksha Stotra | गजेन्द्र मोक्ष स्तोत्र हिंदी भावार्थ सहित


गजेन्द्र मोक्ष स्तोत्र

ॐ श्रीमद्भागवतान्तर्गत गजेन्द्रकृत भगवान का स्तवन गजेन्द्र मोक्ष -

श्री शुक उवाच -
श्री शुकदेव जी ने कहा-

एवं व्यवसितो बुद्ध्या, समाधाय मनो हृदि। जजाप परमं जाप्य॑, प्राग्जन्मन्यनुशिक्षितम्‌ ॥ १ ॥

बुद्धिके द्वारा पिछले अध्याय में वर्णित रीति से निश्चय करके तथा मन को हृदयदेश में स्थिर करके वह गजराज अपने पूर्वजन्म में सीखकर कण्ठस्थ किये हुए सर्वश्रेष्ठ एवं बार-बार दोहराने योग्य निम्नलिखित स्तोत्र का मन-ही-मन पाठ करने लगा ॥ १॥


गजेन्द्र उवाच-
गजराज ने (मन-ही-मन) कहा-

ॐ नमो भगवते तस्मे, यत एतच्चिदात्मकम्‌ पुरुषायादिबीजाय, परेशायाभिधीमहि ॥ २ ॥

जिनके प्रवेश करनेपर (जिनकी चेतनता को पाकर) ये जड शरीर और मन आदि भी चेतन बन जाते हैं (चेतन की भाँति व्यवहार करने लगते हैं), “ॐ" शब्द के द्वारा लक्षित तथा सम्पूर्ण शरीरों में प्रकृति एवं पुरुष रूप से प्रविष्ट हुए उन सर्व समर्थ परमेश्वर कों हम मन-ही-मन नमन करते हैं॥ २ ॥


यस्मिन्रिदं यतश्चेदं, येनेदं य इदं स्वयम्‌। योअ्स्मात्परस्माच्च, परस्तं प्रपद्ये स्वयम्भुवम्‌ ॥ ३ ॥

जिनके सहारे यह विश्व टिका है, जिनसे यह निकला है, जिन्होंने इसकी रचना की है और जो स्वयं ही इसके रूप में प्रकट हैं--फिर भी जो इस दृश्य जगत से एवं उसकी कारण भूता प्रकृति से सर्वथा परे (विलक्षण) एवं श्रेष्ठ हैं---उन अपने-आप--बिना किसी कारण के---बने हुए भगवान की मैं शरण लेता हूँ॥ ३ ॥


यः स्वात्मनीदं  निजमाययार्पितं, क्वचिद्विभात॑ क्व च तत्तिरोहितम्। अविद्धदृक साक्ष्युभयं तदीक्षते, स॒ आत्ममूलोवतु मां परात्पर: ॥ ४ ॥

अपनी संकल्प-शक्ति के द्वारा अपने ही स्वरूप में रचे हुए और इसीलिये सृष्टिकाल में प्रकट और प्रलयकाल में उसी प्रकार अप्रकट रहने वाले इस शास्त्र-प्रसिद्ध कार्य-कारण रूप जगत्‌ को जो अकुण्ठित-दृष्टि होने के कारण साक्षी रूप से देखते रहते हैं--उनसे लिप्त नहीं होते, वे चक्षु आदि प्रकाशकों के भी परम प्रकाशक प्रभु मेरी रक्षा करें॥ ४ ॥


कालेन पंचत्व मितेषु कृत्स्नशो,  लोकेषु पालेषु च सर्वहेतुषु । तमस्तदासीद गहनं गभीरं,  यस्तस्य पारे भिविराजते विभुः ॥ ५ ॥

समय के प्रवाह से सम्पूर्ण लोकों के एवं ब्रह्मादि लोकपालों के पञ्चभूतों में प्रवेश कर जानेपर तथा पञ्चभूतों से लेकर महत्तत्त्व पर्यन्त सम्पूर्ण कारणों के उनकी परम कारण रूपा प्रकृति में लीन हो जानेपर उस समय दुर्ज्ञेय तथा अपार अन्धकार रूप प्रकृति ही बच रही थी। उस अन्धकार के परे अपने परम धाम में जो सर्वव्यापक भगवान्‌ सब ओर प्रकाशित रहते हैं, वे प्रभु मेरी रक्षा करें ॥ ५ ॥


न यस्य देवा ऋषय: पदंडीएम विदु-, र्जन्तु: पुनः कोर्हति गन्तुमीरितुम्‌ । यथा नटस्याकृतिभिर्वी चेष्टतो, दुरत्ययानुक्रमण: स मावतु ॥ ६ ॥

भिन्न-भिन्न रूपों में नाट्य करने वाले अभिनेता के वास्तविक स्वरूप कों जिस प्रकार साधारण दर्शक नहीं जान पाते, उसी प्रकार सत्त्व प्रधान देवता अथवा ऋषि भी जिनके स्वरूप को नहीं जानते, फिर दूसरा साधारण जीव तो कौन जान अथवा वर्णन कर सकता है--वे दुर्गम चरित्रवाले प्रभु मेरी रक्षा करें॥ ६ ॥


दिदृक्षवो यस्य पदं सुमंगलं, विमुक्तसंगा मुनयः सुसाधव: । चरन्त्यलोकव्रतमव्रणं वने,  भूतात्मभूता: सुहृद: स में गतिः ॥ ७ ||

आसक्ति से सर्वथा छूटे हुए, सम्पूर्ण प्राणियों में आत्मबुद्धि रखने वाले, सबके अकारण हितू एवं अतिशय साधु-स्वभाव मुनिगण जिनके परम मंगलमय स्वरूप का साक्षात्कार करने की इच्छा से वनमें रहकर अखण्ड ब्रह्मचर्य आदि अलौकिक व्रतों का पालन करते हैं, वे प्रभु ही मेरी गति हैं॥ ७॥


न विद्यते यस्य च जन्म कर्म वा, न नामरूपे गुणदोष एव वा । तथापि लोकाप्ययसम्भवाय यः, स्वमायया तान्यनुकालमृच्छति ॥ ८ ॥

जिनका हमारी तरह कर्मवश न तो जन्म होता है और न जिनके द्वारा अहंकार प्रेरित कर्म ही होते हैं, जिनके निर्गुण स्वरूप का न तो कोई नाम है न रूप ही,  फिर भी जो समयानुसार जगत्‌ की सृष्टि एवं प्रलय (संहार) के लिये स्वेच्छा से जन्म आदि को स्वीकार करते हैं ॥ ८ ॥


तस्मै नमः परेशाय ब्रह्मणेनन्तशक्तये । अरूपायोरुरूपाय नम आश्चर्यकर्मणे ॥ ९ ॥

उन अनन्त शक्ति सम्पन्न परब्रह्म परमेश्वर को नमस्कार है। उन प्राकृत आकार रहित एवं अनेकों आकार वाले अद्भुत कर्मा भगवान्‌ को बार-बार नमस्कार है॥९॥


नम आत्म प्रदीपाय साक्षिणे  परमात्मने। नमो गिरां विदूराय मनसस्चेतसामपि ॥ १० ॥

स्वयं प्रकाश एवं सबके साक्षी परमात्मा को नमस्कार है। उन प्रभुको, जो मन, वाणी एवं चित्तवृत्तियों से भी सर्वथा परे हैं, बार-बार नमस्कार है॥ १० ॥


सत्वेन प्रतिलभ्याय नैष्कर्म्येण विपश्चिता । नमः कैवल्यनाथाय निर्वाणसुखसंविदे ॥ ११ ॥

विवेकी पुरुष के द्वारा सत्त्वगुण विशिष्ट निवृत्ति धर्म के आचरण से प्राप्त होने योग्य मोक्ष-सुख के देनेवाले तथा मोक्ष-सुखकी अनुभूतिरूप प्रभु को नमस्कार ॥११॥


नमः शान्ताय घोराय मूढाय गुणधर्मिणे । निर्विशेषाय साम्याय नमो ज्ञानघनाय च ॥ १२ ॥

सत्त्गगुण को स्वीकार करके शान्त, रजोगुण को स्वीकार करके घोर एवं तमोगुण को स्वीकार करके मूढ - से प्रतीत होने वाले,  भेदरहित; अतएव सदा समभाव से स्थित ज्ञानघन प्रभु को नमस्कार है॥ १२ ॥


क्षेत्रज्ञाय नमस्तुभ्य॑ सर्वाध्यक्षाय साक्षिणे । पुरुषायात्ममूलाय मूलप्रकृतये नमः ॥ १३ ॥

शरीर, इन्द्रिय आदि के समुदायरूप सम्पूर्ण पिण्डों के ज्ञाता, सबके स्वामी एवं साक्षीरूप आपको नमस्कार है। सबके अन्तर्यामी, प्रकृतिक भी परम कारण, किंतु स्वयं कारण रहित प्रभुको नमस्कार है ॥ १३ ॥


सर्वेन्द्रियगुणद्रष्टे सर्व प्रत्यय हेतवे। असताच्छाययोक्ताय सदाभासाय ते नमः ॥ १४ ॥

सम्पूर्ण इन्द्रियों एवं उनके विषयों के ज्ञाता,  समस्त प्रतीतियों के कारण रूप, सम्पूर्ण जड-प्रपंच एवं सब की मूलभूता अविद्या के द्वारा सूचित होने वाले तथा सम्पूर्ण विषयों में अविद्या रूप से भासने वाले आपको नमस्कार है ॥ १४ ॥


नमो नमस्तेखिलकारणाय, निष्कारनायाद्भूतकारणाय । सर्वगामान्मायमहार्णवाय , नमो पवर्गाय परायणाय ॥ १५ ॥

सबके कारण किंतु स्वयं कारणरहित तथा कारण होनेपर भी परिणामरहित होने के कारण अन्य कारणों से विलक्षण कारण आपको बारम्बार नमस्कार है। सम्पूर्ण वेदों एवं शास्त्रों के परम तात्पर्य, मोक्षरूप एवं श्रेष्ठ पुरुषों की परम गति भगवान्‌को नमस्कार है ॥ १५॥


गुणारणिच्छन्नचिदुष्मपाय, तत्क्षो भविस्फूर्जितमानसाय । नैष्कर्म्यभावेन विवर्जितागम-, स्वयंप्रकाशाय नमसस्‍करोमि ॥ १६ ॥

जो त्रिगुणरूप काष्ठोमें छिपे हुए ज्ञानमय अम्नि हैं, उक्त गुणोंमें हलचल होनेपर जिनके मनमें सृष्टि रचनेकी वाह्य-वृत्ति जाग्रत्‌ हो जाती है तथा आत्मतत्वकी भावनाके द्वारा विधि-निषेधरूप शास्त्र से ऊपर उठे हुए ज्ञानी महात्माओंमें जो स्वयं प्रकादित रहते हैं,  उन प्रभुको मैं नमस्कार करता हूँ ॥ १६॥


माद्रिकप्रपन्नपशुपाशविमोक्षणाय, मुक्ताय भूरिकरुणाय नमोलयाय। स्वांशेन सर्वतनुभ्रिन्मनसि प्रतीत, प्रत्यग्दृशे भगवते वृहते नमस्ते ॥ १७ ॥

मुझ-जैसे शरणागत पशुतुल्य (अविद्याग्रस्त) जीवकी अविद्यारूप फाँसीकों सदाके लिये पूर्णरूपसे काट देनेवाले अत्यधिक दयालु एवं दया करनेमें कभी आलस्य न करनेवाले नित्यमुक्त प्रभुको नमस्कार हैं। अपने अंश से सम्पूर्ण जीवोंके मनमें अन्तर्यामीरूपसे प्रकट रहनेवाले सर्वनियत्ता अनन्त परमात्मा आपको नमस्कार है॥ १७ ॥


आत्मात्मजाप्तगृहवित्तजनेषु सक्तै, र्दुष्प्रापणाय गुणसंगविवर्जिताय  मुक्तात्मभि: स्वहृदये परिभाविताय,  ज्ञानात्मने भगवते नम ईश्वराय ॥ १८ ॥

शरीर, पुत्र, मित्र, घर, सम्पत्ति एवं कुटुम्बियोंमें आसक्त लोगोंके द्वारा कठिनतासे प्राप्त होनेवाले तथा मुक्त पुरुषोंके द्वारा अपने हृदयमें निरन्तर चीन्तित ज्ञानस्वरूप, सर्वसमर्थ भगवान्‌कों नमस्कार है॥ १८॥


यं धर्मकामार्थविमुक्तिकामा, भजन्त  इष्टां गतिमाप्नुवन्ति। किं त्वाशीषो रात्यपि देहमव्ययं,  करोतु मे दभ्रदयोविमोक्षणम् ॥ १९ ॥

जिन्हें धर्म, अभिलषित भोग, घन एवं मोक्षकी कामनासे भजनेवाले लोग अपनी मनचाही गति पा लेते हैं, अपितु जो उन्हें अन्य प्रकारके अयाचित लोग एवं अविनाशी पार्षद शरीर भी देते हैं, वे अतिशय दयालु प्रभु मुझे इस विपत्ति से सदाके लिये उबार लें॥ १९ ॥


एकान्तिनो यस्य न कंचनार्थ, वांछन्ति ये वै भगवत्प्रपन्ना: । अत्यद्भुतं तच्चरितं सुमंगलं,  गायन्त आनन्दसमुद्रमग्ना: ॥ २० ॥

जिनके अनन्य भक्त--जो बस्तुतः एकमात्र उन भगवानके ही शरण हैं- धर्म, अर्थ आदि किसी भी पदार्थको नहीं चाहते, अपितु उन्हींके परम मंगलमय एवं अत्यन्त विलक्षण चरित्रोंका गान करते हुए
आनन्दके समुद्रमें गोते लगाते रहते हैं॥ २० ॥


तमक्षरं ब्रहा परं परेश, मव्यक्तमाध्यात्मिकयोगगम्यम्‌ । अतीन्द्रियं सूक्ष्ममिवातिदूर, मनन्तमाद्यं परिपूर्णमीडे ॥ २१ ॥

उन अविनाशी, सर्वव्यापक, सर्वश्रेष्ठ, ब्रह्मादि के भी नियामक,  अभक्तोंके लिये अप्रकट होनेपर भी भक्तियोगद्वारा प्राप्त करनेयोग्य,  अत्यन्त निकट होनेपर भी मायाके आवरणके कारण अत्यन्त दूर प्रतीत होनेवाले,  इन्द्रियोंक द्वारा अगम्य तथा अत्यंत दुर्विज्ञेय, अन्तरहित किंतु सबके आदिकारण एवं सब ओरसे परिपूर्ण उन भगवानकी यैं स्तुति करता हूँ ॥ २१॥


यस्य ब्रह्मादयो देवा वेदा लोकाश्चराचरा: । नामरूपविभेदेन फल्ग्व्या च कलया कृता: ॥ २२॥

ब्रह्मदि समस्त देवता, चारों वेद तथा सम्पूर्ण चराचर जीव नाम और आकृतिके भेदसे जिनके अत्यन्त क्षुद्र अंशके द्वारा रचे गये हैं ॥ २२ ॥


यथार्चिसषोग्ने: सबितुर्गभस्तयो, निर्यान्ति संयान्त्यसकृत्‌ स्वरोचिषः। तथा यतोयं गुणसम्प्रवाहो, बुद्धिर्मन: खानि  शरीरसर्गा: ॥ २३ ॥

जिस प्रकार प्रज्वलित अग्निसे लपटें तथा सूर्यसे किरणें बार-बार निकलती हैं और पुनः अपने कारणमें लीन हो जाती हैं, उसी प्रकार बुद्धि, मन, इन्द्रियाँ और नाना योनियोंके शरीर--यह गुणमय प्रपंच जिन
स्वयम्प्रकाश परमात्मासे प्रकट होता है और पुनः उन्हींमें लीन हो जाता है ॥ २३ ॥


स वै न देवासुरमर्त्यतिर्यञ,  न स्त्री न षण्ढो न पुमान् न जंतु: । नायं गुण: कर्म न सन्न चासन्‌, निषेधशेषो जयतादशेष: ॥ २४ ॥

वे भगवान्‌ वास्तवमें न तो देवता हैं न असुर, न मनुष्य हैं न तिर्यक्‌ (मनुष्यसे नीची--पशु, पक्षी आदि किसी) योनि के प्राणी हैं। न वे स्त्री हैं न पुरुष और न नपुंसक ही हैं। न वे ऐेसे कोई जीव हैं,  जिनका इन तीनों ही श्रेणियोंमें समावेश न हो सके । न वे गुण हैं न कर्म, न कार्य हैं न तो कारण ही। सबका निषेध हो जानेपर जो कुछ बच रहता है,  जही उनका स्वरूप है और वे ही सब कुछ हैं। ऐसे भगवान्‌ मेरे उद्धारके लिये आविर्भूत हों ॥ २४ ॥


जिजीविषे   नाहमिहामुया  कि, मन्तर्बहिश्चावृत्येभयोन्या । इच्छामि कालेन न यस्य विप्लव, स्तस्यात्मलोकावरणस्य मोक्षम्‌ ॥ २५ ॥

मैं इस आहके चंगुलसे छूटकर जीबित रहना नहीं चाहता; क्योंकि भीतर और बाहर--सब ओरसे अज्ञानके द्वारा ढके हुए इस हाथीके शरीरसे मुझे क्या लेना है। मैं तो आत्माके प्रकाशकों ढक देनेवाले उस अज्ञानकी निबृत्ति चाहता हूँ,  जिसका कालक्रमसे अपने-आप नाश नहीं होता,  अपितु भगवान्‌की दयासे अथवा ज्ञानके उदयसे होता है ॥ २५ ॥


सोहं विश्वसृजं विश्वमविश्वं विश्ववेदसम । विश्वात्मानमजं ब्रह्म प्रणतोस्मि परं पदम्‌ ॥ २६ ॥

 इस प्रकार मोक्षका अभिलाषी मैं विश्वके रचयिता, स्वयं विश्वके रूपमें प्रकट तथा विश्वसे सर्वथा परे, विश्वकों खिल्लैना बनाकर खेलनेवाले, विश्वमें आत्मारूपसे व्याप्त, अजन्मा, सर्वव्यापक एबं प्राप्तव्य वस्तुओ में सर्वश्रेष्ठ श्रीभगवान्‌ को केवल प्रणाम ही करता हूँ---उनकी शरणमें हूँ॥ २६ ॥


योगरन्धितकर्माणो  हृदि योगविभाविते । योगिनो यं प्रपश्यन्ति योगेशं तं नतोस्म्यहम्‌ ॥ २७ ॥

जिन्होंने भगवद्भक्तिरूप योगके द्वारा कर्मोकों जला डाला है, वे योगी लोग उसी योगके द्वारा शुद्ध किये हुए अपने हृदयमें जिन्हें प्रकट हुआ देखते हैं, उन योगेश्वर भगवानको मैं नमस्कार करता हूँ॥ २७॥

नमो नमस्तुभ्यमसह्यवेग, शक्तित्रयायाखिलधीगुणाय । प्रपंचपालाय दुरंतशक्तये,  कदिन्द्रियाणामनवाप्यवर्त्मने ॥२८ ॥

जिनकी त्रिगुणात्मक (सत्व-रज-तमरूप) शक्तियोंका रागरूप वेग असह्य है, जो सम्पूर्ण इन्द्रियोंके बिषयरूपमें प्रतीत हो रहे हैं, तथापि जिनकी इन्द्रियाँ विषयोंमें ही रची-पची रहती हैं--ऐसे लोगोंको जिनका मार्ग भी मिलना असम्भव है, उन शरणागतरक्षक एवं अपार शक्तिशाली आपको बार-बार नमस्कार है॥ २८ ॥

नायं वेद स्वमात्मानं यच्छक्त्याहंधिया हतम्‌ । तं दुरत्ययमाहात्म्यम्‌ भगवन्तमितो स्म्यहम्‌ ॥ २९ ॥

जिनकी अविद्या नामक शक्तिके कार्यरूप अहंकार से ढके हुए अपने स्वरूपकों यह जीव जान नहीं पाता, उन अपार महिमावाले भगवानकी मैं शरण आया हूँ॥२९॥

श्रीशुक उवाच- 
श्रीशुकदेवजी ने कहा -


एवं गजेन्द्रमुपवर्णितनिर्विशेषं,  ब्रह्मादयो विविधलिंगभिदाभिमाना:।  नेते यदोपससृपुर्निखिलात्मकत्वात्‌, तत्राखिलामरमयो हरिराविरासीत्‌ ॥ ३०॥

जिसने पूर्वोक्त प्रकारसे भगवानके भेदरहित निराकार स्वरूपका वर्णन किया था,  उस गजराजके समीप जब ब्रह्मा आदि कोई भी देखता नहीं आये, जो भिन्न-भिन्न प्रकारके विशिष्ट विग्रहोंको ही अपना स्वरूप मानते हैं,  तब साक्षात्‌ श्रीहरि--जो सबके आत्मा होनेके कारण सर्वदेवस्वरूप हैं-- वहाँ प्रकट हो गये ॥ ३० ॥


तं तद्वदार्त्तमुपलभ्य जगन्निवास:, स्तोत्रं निशम्य दिविजैः सह संस्तुवद्धिः । छंदोंमयेन गरुडेन समुह्यमान, श्चक्रायुधो भ्यगमदाशु यतो गजेन्द्र: || ३१ ||

उपर्युक्त गजराजको उस प्रकार दुखी देखकर तथा उसके द्वारा पढ़ी हुई स्तुतिको सुनकर सुदर्शन-चक्रधारी जगदाधार भगवान्‌ इच्छानुरूप वेगवाले गरुड़जी की पीठपर सवार हो स्तवन करते हुए
देवताओंके साथ तत्काल उस स्थानपर पहुँच गये, जहाँ वह हाथी था॥ ३१॥


सोन्तस्सरस्युरुबलेन गृहीत आर्तो,  दृष्ट्वा गरुत्मति हरि ख उपात्तचक्रम्‌ । उत्क्षिप्य साम्बुजकरं गिरमाह कृच्छ्रा, न्नारायणाखिलगुरो भगवन्‌ नमस्ते ॥ ३२ ॥

सरोवरके भीतर महाबली ग्राहके द्वारा पकड़े जाकर दुखी हुए उस हाथीने आकाश में गरुड़की पीठपर चक्रको उठाये हुए भगवान्‌ श्रीहरिको देखकर अपनी सूँड़को--जिसमें उसने | पूजाके लिये कमल का एक फूल ले रक्खा था--ऊपर उठाया और बड़ी ही कठिनतासे 'सर्वपूज्य भगवान्‌ नारायण ! आपको प्रणाम है", यह वाक्य कहा ॥ ३२ ||

तं वीक्ष्य पीडितमजः सहसावतीर्य,  सग्राहमाशु सरसः कृपयोज्जहार । ग्राहाद्‌ विपाटितमुखादरिणा गजेन्द्रं, सम्पस्यतां हरिरमूमुचदुस्त्रियाणाम्‌ ॥ ३३ ॥

 उसे पीड़ित देखकर अजन्मा श्रीहरि एकाएक गरुड़को छोड़कर नीचे झीलपर उतर आये। वे दयासे प्रेरित हो ग्राहसहित उस गजराज को तत्काल झीलसे बाहर निकाल लाये और देवताओंके देखते-देखते
चक्रसे उस ग्राहका मुँह चीस्कर उसके चंगुलसे हाथीकों उबार लिया॥ ३३ ॥




गजेन्द्र कृत इस गजेन्द्र मोक्ष स्तोत्र  का आर्तभावसे पाठ करनेपर लौकिक-पारमार्थिक महान्‌ संकटों और विप्लोंसे छुटकारा मिल जाता है और निष्कामभाव होनेपर अज्ञानके बन्धनसे छूटकर पुरुष भगवानको प्राप्त हो जाता है। स्वयं भगवानका वचन है कि "जो रात्रिके शेषमें (ब्राह्ममुहूर्त के प्रारम्भ में) जागकर इस गजेन्द्र मोक्ष स्तोत्र के द्वारा मेरा स्तवन करते हैं, उन्हें में मृत्युके समय निर्मल मति (अपनी स्मृति) प्रदान करता हूँ।"

और 'अन्ते मतिः सा गतिः' के अनुसार उसे निश्चय ही भगवानकी प्राप्ति हो जाती है तथा इस प्रकार वह सदाके लिये जन्म-मृत्युके बन्धनसे छूट जाता है। संस्कृत न जाननेवाले भाई-बहिनों के लिये गजेन्द्र मोक्ष स्तोत्र  का सुन्दर भावार्थ लिख दिया गया है। आशा है कि पाठक इससे लाभ उठावेंगे।

 ॥ इति गजेन्द्र मोक्ष स्तोत्रम् 






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