Satyanarayan Katha: सूतजी कहने लगे- अब वह साधु वैश्य बहुत-सा सोना, जवाहरात और धन लेकर नाव द्वारा अपने नगर को चल दिया।भगवान ने एक गुरुकुल संचालन करने वाले ऋषि के रूप में साधु वैश्य के पास पहुँचकर उसकी सत्य निष्ठा की परीक्षा ली ।
ऋषि साधु वैश्य से बोले - आप चाहें तो अपनी सामर्थ्य और श्रद्धा के अनुसार इस आश्रम के कार्यों के संचालन हेतु स्वेच्छा से सहयोग दे सकते हैं।
(यहां श्रेष्ठ कार्यों में यथासाध्य सहयोग करने के उत्तरदायित्व पर बल देकर दृष्टान्तों द्वारा उसकी पुष्टि की जा सकती है।)
उदाहरण
१- आचार्य चाणक्य तब तक्षशिला विश्वविद्यालय के कुलपति थे । देश के सम्पन्न व्यक्ति तथा राजा लोग उनकी आर्थिक सहायता करते थे। आवश्यकता पड़ने पर आचार्य स्वयं भी सम्पन्न व्यक्ति को सूचना देकर धन मंगा लेते थे। एक शिष्य ने शंका की “आचार्यवर ! आप परीक्षा के रूप में लोगों से धन की याचना करते हैं?"
चाणक्य ने कहा - "नहीं वत्स ! हम राष्ट्र हित के लिये कार्य कर रहे हैं। बड़े कार्य अनेक व्यक्तियों के सहयोग से ही चलते हैं। हमारे पास जो है, वह हम लगा रहे हैं, अन्य भावनाशीलों के पास भगवान का दिया हुआ बहुत कुछ है। उन्हें प्रेरित करके श्रेष्ठ कार्य में उनके साधन लगवा देना भी पुण्य है।
२- कर्ण सत्कार्य के लिये सहयोग माँगने वाले किसी भी व्यक्ति को निराश नहीं जाने देते थे। श्रीकृष्ण उनकी इस श्रेष्ठता का विश्वास कराने के लिये दो बार कर्ण को कसौटी पर कसा।
एक बार एक ब्राह्मण को वर्षा ऋतु में यज्ञ के लिये सूखी चंदन की लकड़ी लेने भेजा । पहले युधिष्ठिर के पास भेजा। उन्होंने २-३ दिन में व्यवस्था कर देने का आश्वासन दिया, किन्तु कर्ण ने सूखी लकड़ी न मिलने पर अपने भवन के चंदन के किवाड़ फाड़ कर उसे तुरन्त दे दिये।
दूसरी बार जब कर्ण युद्धभूमि में अन्तिम श्वास ले रहे थे कृष्ण और अर्जुन ब्राह्मण वेष में पहुंचे और सोने की माँग की । कर्ण ने उस स्थिति में भी अपना दाँत तोड़कर उस पर मढ़ा सोना निकाल कर दे दिया।
३- राक्षसों के वध के लिये इन्द्र ने ऋषि दधीचि से उनकी हड़ियाँ माँगी। ऋषि ने सहज भाव से शरीर छोड़कर हड्डियाँ दान कर दी । उनका मन था कि सत् कार्य में शरीर लगता है, तो शुभ ही है।
४- लंका के लिये पुल बन रहा था । एक गिलहरी भी उसके लिये अपने बालों में रेत भर-भर कर पहुंचाने लगी। बन्दर हँसे, भगवान राम के पास ले गये। "पूछा तू क्या करती है"? गिलहरी ने उत्तर दिया " भगवान ने मुझे जितनी सामर्थ्य दी है, उसे ही सत्कार्य में लगाती हूँ" राम ने उसकी पीठ थप-थपाई और कहा मेरी दृष्टि में इसकी सहायता का महत्त्व किसी समर्थ की सहायता से कम नहीं है।
साधु वैश्य के मन में धन-संग्रह का लोभ पुन: आ गया और उसने अपनी नाव में लता-पत्र भरे होने का बहाना बनाकर ऋषि को सहायता देने से स्पष्ट इन्कार कर दिया । अपनी इस तुच्छ बुद्धि के कारण उसे पुन: भगवान के क्रोध का भाजन बनना पड़ा।
यहाँ जमाखोरी-वृत्ति की भर्त्सना करते हुए कुछ दृष्टान्त दिये जा सकते है।
उदाहरण
जमाखोरी का अर्थ है, वस्तुओं को उपयोग चक्र से बाहर कर लेना। इससे अनेक विकृतियाँ पनपने लगती हैं। मैं सम्पन्न व्यक्ति कहलाऊँ, इस कामना से प्रभावित मनुष्य अकारण संचय में लगकर अपना और समाज का सन्तुलन बिगाड़ देता है। ऐसे व्यक्ति को इस अनीति का दण्ड भोगना पड़ता है।
१- हिरण्याक्ष नामक राक्षस की दृष्टि धन पर ही जमी रहती थी। कहीं से भी, किसी प्रकार भी धन प्राप्त करने के प्रयास में वह लगा रहता था। तमाम सम्पत्ति उसने जमीन में गाड़कर रख ली थी। भगवान ने वाराह रूप रखकर उसका नाश करके उस सचिंत सम्पदा का वितरण पुनः समाज में किया । कंस - हिरण्यकश्यप द्वारा संचय तथा रावण द्वारा सोने की लंका बनाने के भी ऐसे ही परिणाम निकले।
२- शहद की मक्खी बहुत अधिक संचय करती है । फलस्वरूप उसके घर पर लोगों की निगाह लगी रहती है तथा समय पाते ही उसका घर नष्ट करके संचित शहद प्राप्त कर लेते हैं। धन संचय करने वालों द्वारा भी समाज में इस प्रकार की अपहरण की वृत्ति को बढ़ावा मिलता रहता है। वे समाज की वृत्ति भी बिगाड़ते हैं और स्वयं भी नष्ट होते हैं।
३- शरीर में बेचैनी होने लगी है। सिर में चक्कर, पेट में दर्द, मुंह में छाले, हाथ-पैरों में सुस्ती, आँखों के सामने अंधेरा छाने जैसे अनेक रोग हो गये। रोगी सबकी चिकित्सा का आग्रह करने लगा। वैद्य ने कहा रोग एक ही है, वह यह कि पेट ने अन्न संचय करना प्रारम्भ कर दिया है । जुलाब देकर पेट साफ कराते ही सारे रोग ठीक हो गये। समाज में भी जमाखोरी के कारण ऐसे ही कष्ट पैदा हो जाते हैं।
उसकी नौका दुर्घटनाग्रस्त होकर समस्त धन सहित डूब गई। नाविकों के प्रयास से साधु वैश्य दामाद सहित किसी प्रकार बच गया।
नदी तट पर रहने वाले बुद्धिमान, सेवापरायण तथा परिश्रमी आश्रमवासियों के मनोयोग पूर्ण प्रयास से सारा धन नदी तल से निकाल लिया गया।
उदाहरण
१- एक पथिक जंगल में भटक गया, रात्रि हो गयी। वर्षा से भीगकर ठिठुर रहा था। एक पेड़ के नीचे भूखा-प्यासा सिकुड़कर बैठा था। ऊपर कबूतरों ने उसे देखा। सोचा, बेचारा इस कष्ट में न जाने सबेरे तक जिन्दा रहे या न रहे? उन्होंने उसके लिये अग्नि लाकर दी तथा भोजन के लिये स्वयं अपना शरीर अर्पित कर दिया । स्वयं आग में कूद पड़ा तथा उसके कष्ट का निवारण किया।
२-बंगाल में अकाल पड़ा। विवेकानन्द जी ने अपने साथी संन्यासियों के साथ सहायता कार्य प्रारम्भ किया। धन की कमी पड़ी, तो वे बैलूर मठ बेचने को तैयार हो गये। उनका कथन था, मठ तो फिर भी बन जायेगा, किन्तु हजारों व्यक्तियों के प्राण फिर कहाँ से लाये जा सकेंगे? उनकी करुणा से सम्पन्न व्यक्ति प्रभावित हुए और धन की व्यवस्था हो गयी।
३- राजा दशरथ को पता लगा कि राक्षस ऋषियों को परेशान किये हैं, तो अपनी सेना के साथ स्वयं चलने को तैयार हो गये। विश्वामित्र जी ने राम-लक्ष्मण को माँगा, तो प्राण से प्यारे पुत्रों को भी उन्हें सौंप दिया।
४- धर्मराज को “नरो वा कुंजरो वा" का भ्रम पैदा करने के कारण नरक तक ले जाया गया। उनके शरीर से स्पर्श हुई हवा से नरकवासियों को आराम मिला, यह जानकर उन्होंने यमराज से प्रार्थना की कि मुझे नर्क में रहने दें, क्योंकि इससे पीड़ितों को आराम मिलता है।
साधु वैश्य ने अपनी भूल का पश्चात्ताप किया तथा अपनी सम्पत्ति में से पर्याप्त अंश श्रेष्ठ कार्यों के लिए दान देकर अपनी निष्ठा का परिचय देता हुआ घर लौट आया।
वे वैश्य दम्पत्ति उसके बाद जीवन भर निष्ठापूर्वक सत्यवती बने रहकर, समाज की समृद्धि बढ़ाते रहे तथा स्वयं भी सुख यश और पुण्य के भागी बने।
सामान्य व्यक्ति की तरह निर्वाह मात्र का धन अपने लिए खर्च करके, शेष सब सद्वृत्तियों के प्रचार-प्रसार में लगाने लगे। उनके सत् प्रयासों से समाज में धर्म प्रवृत्तियाँ बढ़ी और असंख्य व्यक्तियों ने सन्मार्ग की प्रेरणा पाकर जीवन को सार्थक बनाया।
॥इति श्रीसत्यनाराणकथायां चतुर्थोऽध्यायः समाप्त ॥