Satyanarayan Katha Chapter Second | In Hindi | Astha Darbaar

 

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सत्यनारायण कथा: सूतजी कहने लगे- हे ऋषियों ! अब आपको सत्यव्रत धारण करने वालों की कथा सुनाता हूँ। किसी समय काशी नगरी में एक बहुत गरीब ब्राह्मण निवास करता था।

ब्राह्मण का नाम सदानन्द था। वह दरिद्रता के कारण दीन भाव से व्याकुल होकर उदर पूर्ति के लिए भीख माँगता हुआ इधर-उधर घूमता-फिरता था।

भगवान उसे सही दिशा देने के उद्देश्य से एक वृद्ध ब्राह्मण के रूप में उसके पास पहुँच कर बोले-

वृद्ध ब्राह्मण ने कहा- हे सदानन्द तुम ब्राह्मणोचित सत् मार्ग से भटक गये हो, असत् मार्ग पर चलने के कारण ही तुम यह कष्ट पा रहे हो।


ब्राह्मण के कार्य है


स्वयं अपना तथा समाज का ज्ञान संवर्धन

. अपना तथा समाज का चरित्र संवर्धन

श्रेष्ठ कार्यों के लिये सहयोग देना और दिलाना 


ज्ञान संवर्धन

अज्ञान ही मनुष्य के दुःखों का कारण बनता है; परन्तु ज्ञान का संग्रह और -प्रसार तपस्वी कर सकते हैं। यह उत्तरदायित्व ब्राह्मण का है

- ऋषियों ने देश में धर्म तन्त्र के द्वारा ज्ञान संवर्धन की व्यापक व्यवस्था बना रखी थी स्थान-स्थान पर चर्चा तथा सत्संगों के माध्यम से यह कार्य "किया जाता था। आश्रम में ऋषि ज्ञानार्जन करते थे और उसे समाज में फैलाते थे, इसीलिये उनका सम्मान था। जन सामान्य से लेकर राजा तक उनसे मार्गदर्शन लेते थे। सूत-शौनक, याज्ञवल्क्य-वशिष्ठ आदि के नाम इस संदर्भ में प्रख्यात है। नारद जी तो इसी उद्देश्य से बराबर घूमते ही रहते थे।

- नानक सामान्य व्यापारी के पुत्र थे, कबीर अनाथ थे। जुलाहे ने उन्हें पाला, वे शिक्षित भी नहीं थे, नामदेव और रैदास छोटे स्तर के व्यवसाय करके निर्वाह चलाते थे, किन्तु ज्ञान साधना और दूसरों को ज्ञान देने के कारण ही श्रेष्ठ संत-पूजनीय बने।

-राजकुमार सिद्धार्थ रोगी, वृद्ध और मृतक को देखकर भयभीत हो गये थे। किन्तु ज्ञान प्राप्त होने पर बुद्ध कहलाये। सारे एशिया में ज्ञान का प्रसार करके अवतार के रूप में पूजित हुए।


चरित्र संवर्धन

मनुष्य की श्रेष्ठता की परख उसके आचरण से होती है। जानकारी होना अच्छी बात है, पर उसके आधार पर आचरण किया जा सके, तो वह ज्ञान भी निरर्थक हो जाता है।

-रावण पुलस्त्य ऋषि के वंश का था, विद्वान् भी बेजोड़ था, किन्तु चरित्र निर्माण में चूक जाने के कारण राक्षस बन गया।

-बलि राक्षस वंश के थे। किन्तु शुक्राचार्य के सान्निध्य से अपने चरित्र को इतना श्रेष्ठ बनाया कि देवता भी लज्जित होने लगे। देवताओं की सहायता के लिए भगवान भी उनका अनिष्ट करके उनके सामने याचक बनकर पहुंचे तथा चरित्र की श्रेष्ठता स्वीकार की।

-देवताओं के लिए शुक्राचार्य से संजीवनी विद्या सीखने के लिये देवगुरु बृहस्पति के पुत्र कच ने साहस किया। उन्होंने शुक्राचार्य को अपना असली परिचय देकर आने का उद्देश्य भी बता दिया। कहा कि यदि अपने आचरण से मैं आपको प्रसन्न कर सकूँगा, तो विद्या लेकर ही जाऊंगा। शुक्राचार्य देवताओं को वह विद्या बताना नहीं चाहते थे; किन्तु चरित्र की विजय हुई। शुक्राचार्य तथा उनकी पुत्री देवयानी कच के चरित्र से इतने प्रभावित हुए कि संजीवनी विद्या दे ही दी।

- रामराज्य और रावणराज्य में वैभव और सम्पन्नता समान थी, किन्तु अन्तर केवल राजा और नागरिकों के चरित्र का था। राम के पास गुरु वशिष्ठ जैसे चरित्र सम्पन्न ब्राह्मण, नागरिकों को सच्चरित्रता का पाठ पढ़ाते रहते थे। इसीलिये रामराज्य आदर्श राज्य हुआ।

वृद्ध ब्राह्मण ने समझाया-भिक्षा आदि का असत् आकर्षण छोड़ दो, ब्राह्मण के लिये यह उचित नहीं। ब्राह्मण तो समाज से जितने अनुदान लेता है, उससे अनेक गुने अनुदान ज्ञान-दान तथा सेवा-साधना के रूप में समाज को देता रहता है। अपने निर्वाह के लिये भिक्षा माँगना जघन्य पाप है। जिसमें जरा भी स्वाभिमान शेष है, वह ऐसा नहीं कर सकता लोक मंगल के लिये स्वयं अपने अनुदान देना और दूसरों से दिलाने का तो औचित्य है, पर भिक्षा-व्यवसाय तो मनुष्यता पर कलंक है।

-ऋषि लोग एकांत स्थान में रहकर तप और शोध कार्य किया करते थे। वहाँ वे अपने आहार की व्यवस्था कृषि अथवा कंदमूल फलों से कर लेते थे। माँगते नहीं थे। कणाद और पिप्पलाद ऋषि तो अन्य व्यवस्था के अभाव में बिखरे हुए अन्न के दाने एकत्रित करके और पीपल के बीजों को खाकर ही रह -जाते थे, पर समाज पर भार नहीं बनते थे।

- द्रोणाचार्य बाह्मण थे राजा द्रुपद उनसे सहायता का वादा करके मुकर गये, इस कारण उन्हें कुछ समय तक बड़े अभाव में रहना पड़ा। बच्चों को दूध की जगह चावल पीसकर पिलाये, पर भीख नहीं माँगी। भीष्म पितामह के आग्रह पर राजकुमारों को शिक्षा देने के बदले ही कुछ सहायता लेना स्वीकार किया।

-भीख माँगना ओछा कार्य है,स्वयं भगवान को भी बलि से कुछ माँगना पड़ा, तो वे वामन (छोटे) बनकर गये। यह भिक्षावृत्ति के छोटेपन का ही आलंकारिक प्रदर्शन है।

- सुदामा से उनकी पत्नी ने कहा कि अभाव दूर करने के लिए किसी से कुछ माँग क्यों नहीं लेते सुदामा ने उत्तर दिया "ब्राह्मण का काम समाज को देना है, उससे लेना नहीं। ब्राह्मण की योग्यता का लाभ समाज अधिक लेना चाहे, तो स्वयं ही उसका सहयोग करे- ऐसी मर्यादा है।" वे कृष्ण से मिलने गये, उनके कार्य का महत्त्व समझकर कृष्ण ने उन्हें प्रचुर सहायता दी, परन्तु उन्होंने वहाँ भी माँगा कुछ नहीं।

हे विप्र ! तुम दीनता, भय, आलस्य और अकर्मण्यता छोड़कर अपने ब्रह्म तेज को जागृत करने के लिए साधना करो।विद्या की वृद्धि करो, स्वाध्याय करो और धर्म का प्रचार करो। तुम्हें स्वयं गुण, कर्म और स्वभाव की दृष्टि से दूसरों के सामने उच्च आदर्श उपस्थित करना चाहिए।

तुम्हारा प्रधान कर्त्तव्य है कि घर-घर जाकर जन-जन में सच्ची धार्मिक चेतना जागृत करो।

वृद्ध बाह्मण के रूप में बोलने वाले भगवान का आदेश मानकर सदानन्द ने दीनता छोड़कर अपने आचरण को पूरी तरह सुधार लिया।

सत्यव्रत के पालन से उसकी प्रतिष्ठा बढ़ी, समाज के श्रद्धायुक्त सहयोग से उसके सारे अभाव मिट गये और वह तेजस्वी जीवन जीने लगा।

तब वह सत्य धर्म की महत्ता दशनि के लिए धर्म-आयोजन भी करने लगा।

ऐसे ही एक आयोजन के अवसर पर एक लकड़हारा वहाँ पहुँचा।

आयोजन समाप्त होने पर लकड़हारे ने सदानन्द से सत्यनारायण व्रत के नियम बताने की प्रार्थना की।

सदानन्द ने कहा - हे भाई! तुम अपने आपको दीन मत समझो, तुम्हारे पास तो श्रम की महान् पूँजी है तुम श्रम के प्रति सम्मान के भाव जागृत करो, पूरे मनोयोग से काम करो। 


उदाहरण 

परिश्रम मनुष्य की बड़ी भारी पूँजी है। ज्ञानार्जन, धनार्जन सभी में श्रम करना पड़ता है। श्रम से बचने से अथवा श्रम के प्रति सम्मान का भाव रखने से मनुष्य दीन-दरिद्र रहता है।

-राजा जनक श्रम की प्रतिष्ठा के प्रबल समर्थक थे। राजकार्य तथा ज्ञानप्रसार की व्यस्तता में भी श्रमपूर्वक अपने लिये स्वयं अन्न उपार्जन करते थे। इसलिये उनकी प्रतिष्ठा बढ़-चढ़कर रही।

-एक बार अनावृष्टि का योग पड़ा। लोगों ने कहा कि १२ वर्ष तक जल नहीं बरसेगा; किन्तु एक किसान फावड़ा लेकर खेत पर नित्य काम करता रहा। एक बार बादल वहाँ से निकले और किसान से पूछा कि जब पानी बरसना ही नहीं है, तो बेकार मेहनत क्यों कर रहा है? किसान ने उत्तर दिया- "इसीलिये कि १२ वर्ष में मेरा श्रम का अभ्यास छट जाय।"बादलों को बात ठीक लगी और उन्होंने कहा कि हमारा भी बरसने का अभ्यास छट जाय? इसीलिये वे बरसने लगे वस्तुत: वे किसान की श्रम निष्ठा का ईनाम उसे दे गये।

- एक व्यक्ति सन्त सुकरात के पास बार-बार सम्पन्नता का आशीर्वाद लेने जाता, पर वे उसे बहला कर टाल देते एक बार सन्त ने देखा वह व्यक्ति फल बेचने के लिये ले जा रहा है, तो स्वयं जाकर उसे सम्पन्नता का आशीर्वाद दिया उसने पूछा कि बार-बार आग्रह पर भी पहले आशीर्वाद नहीं दिया, पर अब स्वयं देने क्यों आये? सन्त ने कहा परिश्रमहीन व्यक्ति को आशीर्वाद भी फलित नहीं होता। अब तुम श्रम करने लगे, अत: स्वयं आशीर्वाद दिया।

वह लकड़ी बेचने वाला भी लकड़ी बेचने के साथ सत्यवत का पालन करने लगा और उसने अपने गुण, कर्म, स्वभाव में सत्यवत के अनुरूप संशोधन कर लिया।

पहले उस लकड़हारे की बहुत कम बिक्री होती थी, सत्यवत के आलम्बन लेने से उसका कारोबार बढ़ा तथा वह धनी हो गया।

ईमानदारी के कारण लोगों का विश्वासपात्र बन जाने से उसका कारोबार बढ़ा

इस प्रकार अन्य सब मनुष्य भी सत्यव्रत को धारण करके निश्चय रूप से अपना कल्याण कर सकते हैं, इसमें कुछ भी सन्देह नहीं। 


॥इति श्री सत्यनाराण व्रत कथायां द्वितीयोऽध्यायः समाप्तः ।।


और पढ़ें-

सत्यनारायण कथा तीसरा अध्याय  - Satyanarayan Katha Chapter Third

सत्यनारायण कथा चौथा अध्याय  - Satyanarayan Katha Chapter Fourth

सत्यनारायण कथा पाँचवा अध्याय - Satyanarayan Katha Chapter Fifth

सत्यनारायण कथा पहला अध्याय  - Satyanarayan Katha Chapter First

सत्यनारायण कथा दुसरा अध्याय  - Satyanarayan Katha Chapter Second

सत्यनारायण कथा दुसरा अध्याय  - Satyanarayan Katha Chapter Second pdf


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